प्रदेश के सभी जिलों में स्नेह यात्रा के माध्यम से गांव-गांव में आस्था और आध्यात्म का जन सैलाब उमड़ पड़ा है। देश भर के प्रतिष्ठित मठ, मंदिरों और अखाड़ों के प्रमुख संतजन यात्रा का नेतृत्व कर रहे हैं। ऐसी आध्यात्मिक विभूतियों को घर-घर जाकर संपर्क करने और जनसंवाद करते देखना किसी स्वप्न के साकार होने जैसा है। खण्डवा जिले की श्रीमती प्रभावती भाव-विभोर होकर कहती हैं कि लाडली बहना योजना जैसे अभियानों से प्रदेश के मुख्यमंत्री ने हमारी आर्थिक स्थिति का कायाकल्प तो कर ही दिया है, अब रक्षा सूत्र से हमें आत्मीयता और सम्मान के बंधन में भी बांधने का ऐतिहासिक कार्य कर रहे हैं। हरिनाम संकीर्तन से बंध जाता है समायात्रा का प्रतिदिन शुभारंभ किसी सेवा बस्ती से होता है। परम्परागत स्वागत अभिनंदन के बाद पूज्य संत पूरी बस्ती में घर-घर जाकर संवाद और संपर्क करते हैं। बाद में सभी की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधकर स्नेह और अपनत्व का रिश्ता बनाते हैं। आशीर्वचन और प्रसाद वितरण के साथ एक बस्ती के कार्यक्रम का समापन होता है। यात्रा का सबसे आर्कषक पहलू होता है भाव-विभोर करने वाला हरिनाम संकीर्तन| लोग इसमें डूबकर नाचने-गाने लगते हैं और साधु भी इसी उल्लास और उमंग में घुल-मिल जाते हैं। चौपाल का चबूतरा बन जाता है व्यास पीठस्नेह यात्रा का संपूर्ण आयोजन सहजता, सरलता का रूप प्रदर्शित करता है। कुर्सियां और पंडाल की संस्कृति को त्यागकर पूज्य संत गांव के ही सुरम्य प्राकृतिक वातावरण में किसी पेड़ के नीचे अपना आसन जमा लेते हैं। लोग भी पूज्य संत को घेरकर बैठ जाते हैं। आशीर्वचन का अनुरोध होता है। पूज्य संत सामाजिक बुराईयों को भी दूर करने का संदेश देते हैं। नशामुक्ति और पर्यावरण को सहेजने की सीख सभी संतजनों की अमृतवाणी का हिस्सा बन रही है।लोग साथ आते गये और कारवां बनता गयास्नेह यात्रा के तय मार्गों के कस्बों और ग्रामों में तो संतजनों का प्रवास हो ही रहा है। ऐसे आध्यात्मिक विभूतियों के दर्शन के लिये लोग पंक्तिबद्ध होकर सड़क के दोनों और प्रतिक्षारत् रहते हैं। सभी के मन में संतजनों की एक झलक पाने की अभिलाषा रहती है। सब संतजनों का स्नेहहिल सानिध्य पाना चाहते हैं। इस तरह प्रतिदिन यात्रा दल से शुरू हुई यात्रा शाम ढलते-ढलते एक बड़े जन समुदाय का स्वरूप ले लेती है। सहभोज और संकीर्तन के बाद यात्रा का समापन होता है। प्रतिदिन यात्रा 10-12 बस्तियों से गुजर कर संवाद के छोटे-छोटे सत्र पूर्ण कर दोपहर और सायं के भोजन के समय जनसंवाद में बदल जाती है। एक दिन के इस क्रम में पूर्णतः के बाद लोग दूसरे दिवस की प्रतिक्षा करते हैं।
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